DESK: बिहार में जाति आधारित गणना कराने में करीब 115 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। पटना हाई कोर्ट में राज्य सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में यह जानकारी दी गई है। हाई कोर्ट में राज्य सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में बताया गया है कि राज्य में जाति आधारित गणना कराने में बिहार सरकार लगभग 115 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है। जाति आधारित गणना को लेकर 3 करोड़ से अधिक सर्वेक्षण प्रपत्रों की छपाई के लिए मेसर्स सरस्वती प्रेस, कोलकाता को 11.6 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भुगतान करना है।
हलफनामे में राज्य सरकार की ओर से बताया गया है कि जाति आधारित गणना अब पूरा होने के अंतिम चरण में था, यदि इस दौरान कोई अड़चन आती है तो न केवल राज्य के सरकारी खजाने को भारी नुकसान होगा, बल्कि गरीब, वंचित और जरूरतमंद लोगों के विकास का उद्देश्य भी वंचित हो जाएगा। राज्य सरकार की ओर से यह हलफनामा 29 अप्रैल को पटना हाई कोर्ट उच्च न्यायालय में दायर याचिका के जवाब में था, जिसमें जाति आधारित गणना को चुनौती दी गई थी और चल रही गणना पर अंतरिम रोक लगाने की मांग की गई थी।
इससे पहले बिहार में जाति आधारित गणना पर सोमवार को पटना हाई कोर्ट में होने वाली सुनवाई टल गई। जाति आधारित गणना पर रोक लगाने की याचिका पर अब मंगलवार को पटना हाईकोर्ट में सुनवाई होगी। दरअसल, जाति आधारित गणना पर रोक लगाने ने लिए पटना हाई कोर्ट में आज सुनवाई होनी थी। जातियों की गिनती कराने के बिहार सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। याचिका में कहा गया था कि राज्य सरकार को जाति गणना कराने का संवैधानिक अधिकार नहीं है। साथ ही इस पर खर्च हो रहा 500 करोड़ रुपए भी टैक्स के पैसों की बर्बादी है।
राज्य सरकार की ओर से दाखिल जवाबी हलफनामे ने याचिकाकर्ता के इस दावे को नकार दिया गया कि यह कवायद जाति आधारित गणना के समान थी, जिसे केवल केंद्र ही तय कर सकता था। यह भी कहा कि जातियों की गिनती में लोगों की गणना हर 10 साल में की जाती थी। हालांकि इस साल फरवरी तक इस प्रक्रिया को पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब इसे तीन महीने बढ़ाकर मई कर दिया गया है। राज्य सरकार ओर से हाई कोर्ट को बताया गया है कि बिहार में जाति आधारित गणना के लिए प्रथम अनुपूरक बजट (2022-23) में नियमित बजट का प्रावधान किया गया है। यह याचिकाकर्ता के इस तर्क के जवाब में था कि इसे कराने के लिए बिहार आकस्मिकता निधि से 500 करोड़ रुपये अलग रखे गए थे।
सरकार के हलफनामे में यह भी कहा गया है कि जाति आधारित गणना के माध्यम से एकत्र किया गया डेटा सभी सरकारी एजेंसियों को समाज के निचले सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम में रहने वाले लोगों के लिए अच्छी तरह से परिभाषित और सर्वोत्तम अनुकूल नीतियां और कार्यक्रम तैयार करने के लिए उपलब्ध होगा।
इसने यह भी कहा कि जाति आधारित गणना कराने वाला बिहार पहला राज्य नहीं बल्कि कर्नाटक है, जहां 2014 में जातियों की गिनती कराई गई थी। छत्तीसगढ़ डेटा एकत्र करने के लिए अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) का एक समान सर्वेक्षण कर रहा है। इस बीच, पिछड़े वर्गों के लिए महाराष्ट्र राज्य आयोग ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। पिछड़ा वर्ग के लिए ओडिशा राज्य आयोग भी पिछड़े वर्गों की सामाजिक और शैक्षिक स्थितियों का राज्यवार सर्वेक्षण कर रहा है। केरल सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए राज्य आयोग से अगड़े वर्गों के लिए आर्थिक पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए एक सर्वेक्षण करने को कहा है। राज्य सरकार ने हाई कोर्ट को बताया है कि जाति-आधारित गणना कराने के पीछे केवल एक मात्र उद्देश्य विभिन्न जाति समूहों की आय, शिक्षा, रोजगार की स्थिति, पेशे और संपत्ति के स्वामित्व का पता लगाना था।