Thursday, March 20, 2025
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पर्दे पर दहाड़ रही विकी कौशल की ‘Chhaava’ यहां रह गई ‘कच्ची’, ऐसा होता तो और जानदार होती कहानी

Chhaava: विकी कौशल की ‘छावा’ आई और क्या खूब आई… मतलब विकी ने ‘छावा’ बनकर ऐसी दहाड़ मारी कि स्क्रीन से निकलकर वीर सांभाजी लोगों के दिलों में उतर गए. विकी इस फिल्म में छत्रपति संभाजी के किरदार में हैं. विकी कौशल ने बहुत कुशलता के साथ इस किरदार को निभाया है. ऐसा लगता है, जैसे वाकई संभाजी जैसा लार्जर देन लाइफ केरेक्टर हमारी आंखों के सामने बड़े पर्दे पर जीवंत हो गया हो. इस फिल्म में बहुत कुछ था, जो लोगों को पसंद आया जैसे संभाजी की वीरता, उनकी आवाज में झलकता स्वराज के प्रति अपार प्रेम और उसे को हासिल करने का जुनून. लेकिन फिर भी कुछ ऐसा था जो दिल में पूरी तरह से बैठ नहीं पाया.

ये फिल्म 2 घंटा 41 मिनट की है. केवल मिनटों में गिने तो ये होता है 161 मिनट. इस पूरी फिल्म में वॉर सीन्स को काफी अच्छी तरह से दिखाया गया है. संभाजी के किरदार में विकी ने ना सिर्फ अपने शरीर पर काम किया है, बल्कि तलवार बाजी से लेकर लठ्ठ और हर तरह के हथियार चलाने, घुड़ सवारी करने की जबरदस्त ट्रेनिंग ली. विकी ने खूब पासीना बहाया, वो दिखता भी है… फिर भी कुछ ऐसा छूट गया जो उनके किरदार को पूरी तरह से दिल में उतरने से रोक दे रहा था. आइए जानते हैं कि ऐसा क्या है.

क्या बेहतर किया जा सकता था?

इससे पहले हम ये जानें कि और क्या बेहतर किया जा सकता था, हमें ये समझना जरूरी है कि भले ये कहानी एक ऐतिहासिक शख्सियत पर आधारित हो, लेकिन है तो ये एक फिल्म ही. एक फिल्म किसी निर्देशक के लिए उसके बच्चे की तरह होती है. जैसे किसी बच्चे में अच्छाई बुराई बड़े होते-होते आ जाती है, वैसे ही एक फिल्म के कागजों से निकलने और बड़े पर्दे तक जाने में भी कई अच्छे बुरे बदलाव आते हैं, ऐसे में एक क्रिटिक का काम होता है किसी फिल्म को फिल्म की मेकिंग के स्तर पर जज करने का. ये आर्टिकल भी वैसा ही है, जहां फिल्म को फिल्म की तरह जज किया जा रहा है.

छावा एक बढ़िया फिल्म है… इसमें कोई दो राय नहीं है. फिल्म में वॉर के सीन्स को काफी अच्छी तरीके से शूट किया गया है. वॉर सीन्स या फिर एक्शन को कोरियोग्राफ किया जाता है और छावा के इन सीन्स को काफी अच्छी तरह से कोरियोग्राफ किया गया है. एक एक शॉट और तलवार का घूमना आपको दिखाई देता है. इसपर ना सिर्फ डायरेक्शन और कोरियोग्राफी बल्कि सिनेमेटोग्राफर की भी तारीफ होनी चाहिए. लेकिन एक चीज जो इन वॉर सीन्स को थकाने वाला बनाती है वो है किसी चीज का हद से ज्यादा बार आंखों के सामने आना. छावा में ये चीज़ काफी ज्यादा चुभने वाला है. सीन्स अच्छे हैं लेकिन वो आपकी नजरों के सामने इतनी बार आते हैं कि आप उसकी खूबसूरती को ना इंजॉय कर पाते हैं और ना ही उसे पूरी तरह से समझ पाते हैं.

बैक स्टोरी भी गढ़नी उतनी ही जरूरी है

जब किसी किरदार को बड़े पर्दे पर दिखाया जाता है तो उस किरदार की एक बैक स्टोरी भी गढ़नी उतनी ही जरूरी होती है. छावा के साथ समस्या से है कि सबकुछ एक ही फिल्म में बताने की वजह से सबसे जरूरी भाग यानी छावा के छावा बनने की कहानी कहीं पीछे छूट जाती है. जब पर्दे पर हम इस फिल्म के किसी किरदार को देखते हैं तो ये समझ ही नहीं पाते पूरी तरह की आखिर दिव्या दत्ता के किरदार को छावा से इतनी नफरत क्यों हो गई और क्या वाकई इन दोनों के रिश्ते का केंद्र बस नफरत ही है. यही दिक्कत रश्मिका के किरदार के साथ भी आती है. दोनों के बीच इज्जत तो बहुत दिखती है लेकिन प्यार का ग्राफ खुलकर सामने नहीं आता. ना ये समझाया जाता है कि संभाजी के इस बड़े से साम्राज्य में कोई उनके साथ है तो क्यों है और नहीं है तो क्यों नहीं है. निजी रिश्तों में जब नफरत घुलती है तो उसका असर चेहरों के साथ-साथ आपस में भी दिखने लगता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं लगता.

ये बात भी समझनी जरूरी है कि एक ऐतिहासिक फिल्म के किरदार को नाम से जानना और उसकी जिंदगी को करीब से जानना दो बिल्कुल अलग बातें हैं. इस फिल्म में कहानी है मराठाओं की. मराठाओं के गौरवशाली इतिहास के बारे में हर इंसान नहीं जानता. भले छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम हम सभी ने सुना है और जानते है लेकिन उनके बेटे संभाजी के बारे में शायद हर आम आदमी नहीं जानता, ऐसे में संभाजी और शिवाजी के बीच की वो पिता-बेटे वाली बातचीत की जगह अगर सीन्स होते, तो शायद ये हिस्सा ज्यादा गहरा लगता. साथ ही, किरदारों में डेप्थ की कमी भी बहुत दिखती है. ऑरंगजेब बूढ़ा हो चला है, उसके साथ उसकी बेटी क्यों हर जगह होती है ये बात हर किसी के लिए समझना जरूरी है, ताकी ये बात समझी जा सके कि मुगल साम्राज्य में बादशाह जैसे ऑरंगजेब और शहाजहां की बेटियों का दखल क्यों सत्ता के हर फैसले में होता था. पूरे देश पर राज करने वाले ऑरंग के दिल में बेटी के कितना प्यार था ये देखना दिलचस्प होता, ये किरदारों को नफरत के परिदृश्य से ऊपर उठकर एक नया एंगल दे सकता था.

यहां भी श्रीवल्ली ही हैं रशमिका

महारानी यसुबाई के किरदार में रश्मिका का काम सही है. वो यहां भी श्रीवल्ली ही हैं, बस यहां उनका पुष्पा कोई और है. हां एक और शेड जो उनके किरदार में दिखता है वो है वीरता का. ये एक सच्ची मराठा की पहचान है, लेकिन सिर्फ अपने पति की मन की बात को समझ जाना ही एक अच्छी पत्नी की निशानी नहीं. दो ऐसे किरदार जो आपकी फिल्म का केंद्र हैं उनके बीच एक दूसरे के लिए कितना गहरा प्यार था ये भी दिखना चाहिए. जब एक की आंखों को लोहे की सलाखों से जलाया जा रहा है, उस वक्त दूसरे की आंखों में भी लालिमा होनी चाहिए. वो दर्द पूरी तरह से दिखाई नहीं देता.ये कुछ ऐसी बातें हैं जो शायद और बेहतर की जा सकती थी. बाकी फिल्म शानदार है. देखना मजेदार है.

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